गुरुवार, अगस्त 20, 2020

मां भारती के शूरवीरों, तुमको शत-शत नमन हमारा


तुम्हारे दम पर चैन हमारा, तुम्हारे दम पर अमन हमारा,

मां भारती के शूरवीरों, तुमको शत-शत नमन हमारा। 


तुम्हारे साहस के आगे बौनी, सियाचिन की ऊंचाइयां,

नभ का विस्तार कांपा, कांपी सागर की गहराइयां। 

तुम तिरंगे की आन-बान, तुम्हीं से उज्ज्वल मस्तक हमारा।


राखी रौनक, पायल की रुनझुन, कंगन की खनक सब तुम्ही से है,

हर सपने की ताबीर तुम हो, ख्वाबों का दीदार तुम्हीं से है। 

हर सांस है कर्जदार तुम्हारी, तुम्हीं से सारा संसार हमारा। 


चीन चालाक, पाक नापाक, करते रहते सीनाजोरी

सब ध्वस्त हो जाते हैं, जब चलती रणबांकुरों की टोली। 

संतोष, विजयंत, सौरभ, अभिनंदन, तुम्हीं से है गौरव हमारा। 

- दिवाकर पाण्डेय

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15 अगस्त पूछ रहा


ये कैसी है जमीं, और ये कैसा है आसमां।

15 अगस्त पूछ रहा मेरा कहां है आशियां। 


मैं तो तलाश रहा था मोहब्बत का एक शजर, 

उफ! हर दरख्त पर पसरी नफरत की बेल यहां। 


इतना क्यूं भड़कते हैं सब मजबह के नाम पर 

इतनी ही आग है तो सरहद का रुख करो मियां। 


सोचा न था इस कदर उजड़ जाएगा आंगन मेरा, 

मैं जज्बात तलाशता फिर रहा, यहां-वहां, जहां-तहां।


मशालें तो रोशनी के लिए थीं, तुमने आग क्यूं लगाई

इस आग में सब जल जाएगा तेरा, यह जहां, वह जहां।

दीन, ईमान, इंसा, मोहब्बत क्या सब किताबी फसाने हैं?

वक्त है संभल जाओ, सबको मयस्सर नहीं होता वक्त यहां। 

- दिवाकर पाण्डेय

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सोमवार, मई 25, 2020

अल्फाजों के मेले में सन्नाटे का शोर है

इन दिनों बड़ा अजीब सा दौर है। वक्त की नब्ज को थामा तो वह उतनी ही तेज चल रही थी, जितनी की मुंबई से चली श्रमिक स्पेशल। गोरखपुर जाना था लेकिन राउरकेला पहुंच गई। उलटवांसी यह कि गलती रेलवे की नहीं, लगातार गलती कर रहे (!) मजदूरों की थी। इस दौर को समझते हुए अचानक मन के कागज पर कुछ शब्द उकर आए....

अल्फाजों के मेले में सन्नाटे का शोर है,
आज अंधेरा पूछ रहा उजियारा किस ओर है।

आंखों में खालीपन है और सीने में आह है, 
तपती सड़कें नाप रहे छालों भरे कई पांव हैं। 
पांव हमसे पूछ रहे गांव मेरा किस ओर है?

सूरज की लाली नहीं, ये मांगों का सिंदूर है,
सड़कों पर लाशें हैं और सत्ता मद में चूर है।
मद की मय पी भुजंग फुफकार रहे चहुं ओर हैं।

जठराग्नि की तपिश देखो मनुज हो गया राख है, 
आसमान से बरस रहा दावानल सा संताप है। 
राहें भी उस ओर मुड़ीं, बड़वानल जिस ओर है। 

छल-बल पल-पल और प्रलय अग्रसर प्रतिपल
बच्चों का क्रंदन, ममता का ढल रहा आंचल। 
सिंहासन मौन बने, वोटों के गणित का जोर है।

आज अंधेरा पूछ रहा उजियारा किस ओर है..

-दिवाकर पाण्डेय

मंगलवार, सितंबर 26, 2017

सड़क तेरी भी है, मेरी भी




सफर में हैं हम दोनों, मंजिल तेरी भी है, मेरी भी।
जरा आहिस्‍ता चल, जिंदगी तेरी भी है, मेरी भी।

मंजिल जहां है वहीं रहेगी, फिर यह हड़बड़ी क्‍यों है।
बड़ी नाजुक है सांसों की डोर, वह तेरी भी है, मेरी भी।

ये बाइक, ये कारें, ऑटो, ये रिक्‍शा, जरिया हैं पहुंचने के।
तू अहम का वहम मत पाल, सड़क तेरी भी है, मेरी भी।

इधर-उधर, ऐसे-वैसे, यहां-वहां, क्‍या चलना जरूरी है।
किस्‍सा नहीं हकीकत में रहना है, इतनी समझ तेरी भी है, मेरी भी।

राखी, सिंदूर, रौनक, रोटी, उम्‍मीद- इन्‍हें भी मौत आती है।
जरा-सी तो सलाहियत बरत, ये नेमतें तेरी भी हैं, मेरी भी। 


-    -दिवाकर पाण्‍डेय
 

सोमवार, अगस्त 07, 2017

वर्णिका, राजनीति और रक्षाबंधन


बहुत कुछ टूट रहा है
खंड-खंड विघटित हो रहा है।
अब अंतर्मात्मा आत्महित पर ही जागती है।
पिफर सो जाती है शीतकालीन निद्रा में।
बदल जाती हैं,
आदर्शों, मयार्दाओं और उच्चम मानदंडों
की परिभाषाएं।
बिंदी, झुमका, मेहंदी, पायल कर रहे रुदन
यह कैसा रक्षाबंधन?
‘पिंक’ की ‘न’ पर न्योछावर ढेरों अवॉर्ड,
हर किरदार खेलता है स्त्री -विमर्श का कार्ड।
बेटियां नहीं होंगी, बहू कहां से लाओगे?
सवाल अहम था,
बना जनमत, मिला बहुमत।
कैक्टस के जंगल में सुनाई दे रहा रातरानी का क्रंदन।
यह कैसा रक्षाबंधन?
भारत माता की जय...
पर माता की बेटी जी रही सभय?
यह कैसी राजनीति, जो संवदेनाओं को रही बींध
जिस तरह अच्छा-बुरा, तेरा-मेरा नहीं होता आतंकवाद,
उसी तरह अच्छा-बुरा, तेरा-मेरा नहीं होता कोई अपराध।
अपराधी से ज्यादा घातक होता है
अपराध को नि:शब्द देखना।
एक थी निर्भया, एक है वर्णिका
दोनों को मिली मन के काम और मन के वक्त की सजा।
रसूखदारों से है टक्कर,
चुप हैं शीर्ष, स्वाति और खट़टर।
सेंवई, छेने, और रसमलाई की तरलता समेटे
बड़ा निष्ठुर हो गया है रक्षाबंधन।

-दिवाकर पाण्डेय

गुरुवार, जुलाई 17, 2014

बुधवार, दिसंबर 11, 2013

अब हम उस मकाम पर आ गए हैं

अब हम उस मकाम पर आ गए हैं  
हमारी शक्ल से आईने शर्मा गए हैं।

जब तक बजे गीत हमारे, हम सुनते रहे।
उसने छेड़ी तान तो हम उकता गए हैं।

विकास की नदी में नहाना जरूरी है लेकिन 
हम अपनी ही खुदी से क्यों सकुचा गए हैं।

बादलों ने शायद इसलिए बरसना छोड़ दिया
वो भी हमारी कारगुजारियों से घबरा गए हैं।

उन्होंने तालियां बजाईं न वाह किया मेरे रकीब
वो सबको गले लगा, दिलो-जां में समा गए हैं।
- दिवाकर पाण्डेय

शनिवार, अक्तूबर 05, 2013

जिंदगी के एक मोड़ पे मिल गए यूं आपसे...



जिंदगी के एक मोड़ पे मिल गए यूं आपसे,
 दिल हमारा सजाने लगा मीठे-मीठे से ख्वाब से।

हाय ये शर्मो-हया, सादगी, ये शोखियां
आंखों में तुम्हारी सनम हैं हजारों मस्तियां।
जिस पल देखूं मैं तुम्हें दिखते हो तुम चांद से। 

आपकी आंखों की मय से मौसम शराबी हो गया,
कली फूल बन गई फिजा का रंग गुलाबी हो गया,
चाहते हैं हम तुम्हें, कहते हैं ये आपसे। 

जिंदगी के एक मोड़ पे मिल गए यूं आपसे...

उस शाख पे गुले दिल खिलाऊं कैसे?




उस शाख पे गुले दिल खिलाऊं कैसे? 

रूठा है वो माली, मैं मनाऊं कैसे?

बूंद होती है हर प्यासे की किस्मत में मगर, 
उस दिले दरिया से कोई बूंद चुराऊं कैसे?

कर सके जो रोशन शब-ए-गम मेरा,
वो चरागे मोहब्बत मैं जलाऊं कैसे?

होता नहीं नसीब यहां उंगली का सहारा
दामने यार का सहारा मैं पाऊं कैसे?

हर शह पर तो रहती नहीं उसकी नजर,
दागे दिल नादां उसको दिखाऊं कैसे?

यहां हर सू नजर आती हैं लाशें ही लाशें, 
इन हैवानों को मैं इनसान में बताऊं कैसे?

तेरे लवों की तबस्सुम....




तेरे लवों की तबस्सुम पर नाम लिखा है मेरा,
मैंने आंखों में अपनी चेहरा छुपा रखा है तेरा। 

मेरे वजूद को जनाब इस कदर न ठुकराइए, 
बिखर जाएगा ये मोहब्बत का घरौंदा मेरा।   

तूने मेरे नाम पर कभी ली न हो अंगड़ाई, 
जज्बात के इस मोड़ पर आईना झूठा है तेरा। 

पियूं तो पियूं कैसे इन आंखों के छलकते प्याले, 
न तो साकी है मेरी न है मैखाना मेरा। 

रविवार, सितंबर 01, 2013

तेरे दिल की बात

मैं क्‍या करूं कि मेरे दिल पे आ गई है,
पगली सी एक बदली सेहरा पे छा गई है।

छलके है उनकी आंखों से मय के हजार प्‍याले 
मेरा कोई कुसूर नहीं, साकी पिला गई है।

अब अपने दामन को छुड़ाइये न हमसे,
    मेरी हसरतों के चराग आंधी जला गई है।

                                                           मांग लिया है मैंने रब से दुआ में तुमको,
                                                         तेरे दिल की बात मेरी जुंबा पे आ गई है।

एक शाम जब मैं उदास था

एक शाम जब मैं उदास था
मैं रो रहा था
लेकिन तब मेरे आश्‍चर्य की कोई 
सीमा न रही
जब मैंने देखा, मेरे आंसू 
मुझ पर ही हंस रहे हैं।
मैं रो रहा था 
और आंसू हंस रहे थे।
कैसी विंडबना है ये 
जो जिसके लिए रोता है
वही उस पर हंसता है।
मैं यही झुठलाने के लिए
रो रहा था।
परंतु असफल रहा।
मैं नहीं जान पाता कि मैं हंसने 
के लिए रोता हूं 
या रोने के लिए हंसता हूं 
मगर अब मैं
हंसने का अभ्‍यास करूंगा
क्‍योंकि मैं जान गया हूं कि 
मेरे लिए कोई नहीं रोएगा।


नदी और रिश्‍ते

मैं कहता हूं कि
आखिर क्‍यों
हम नदी के किनारों
की तरह रहते हैं
किनारों के बीच
बहता पानी बनो
क्‍योंकि, रवानी
उसी में होती है
जिंदगानी
उसी में होती है।



गुरुवार, अगस्त 22, 2013

आज घिर आई है बदरिया

बारिश के इस मौसम में हर किसी का मन-मयूर नाच उठता है। प्रकृति के इस आनंद उत्‍सव में हरियाली की चादर भी है और फुहारों की छुअन भी। ऐसे में किसी गीत का जन्‍म होना स्‍वाभाविक है...

आज घिर आई है बदरिया इश्‍क की मेरी छत पर
बरसी हैं लडि़यां पैगाम-ए-महबूब की मेरी छत पर।
बाद-ए-सबा ने झूम के महका दिया दिल का चमन,
उफ!उन आंखों की हया का इंद्रधनुष छा मेरी छत पर।
तड़-तड़ बिजली चमक रही, पवन मचा रहा शोर है,
उनकी मुस्‍कुराहट कर रही अठखेलियां मेरी छत पर।
हमको हिफ्ज़ हैं लव्‍ज-ए-खामोशियां आलाजर्फ की
लरजकर ठिठकने की अदा जवां हुई है मेरी छत पर।
हवा के बोसे कह रहे उन्‍होंने शब भर रची हथेलियां
!रिम‍झिम थम न जाना, जमकर बरस मेरी छत पर।

[हिफ्ज़- (याद, कंठस्‍थ) आलाजर्फ- (बड़े लोग)]

रविवार, अगस्त 18, 2013

लाल किले से महंगाई का बिगुल


प्‍याज ने ऐसा मारा पंच
कि हम हो गए टंच
टमाटर भी खड़ा गुर्रा रहा है
मोहन के मौन पर थर्रा रहा है।
लाल-पीला होकर
अब लाल हो गया है
हर सब्‍जी के दाम में
धमाल हो गया है।
रुपया रोज गिर रहा
राजनीति की तरह
हुई इसकी हालत रिकी बहल
की सताई परणीति की तरह
सोने के दाम भी खरे हो गए हैं
मुझ गरीब के हाल
दाल के फरे हो गए हैं।
सोना की चांदी हो गई
चांदी भी सोना बन गई
खबर मिली है कि
पेटोल कीमत की आंच में
खुद झुलस गया है
आम आदमी के गले में
आम का रस फंस गया है
मंडी में सब्जियां खुश थीं
कि कोई खा नहीं पाएगा
दोपहिया-चौपहिया इठला रहे थे
कि कोई चढ़ नहीं पाएगा।
सरकार ने लाल किले से
बजाया बिगुल
कश्‍मीर तू, मैं कन्‍याकुमारी
पांच साल पहले मैंने तुझे आंख थी मारी
तब फंस गया तू अब फिर आई बारी...!!



शनिवार, अगस्त 10, 2013

'एक टुकड़ा धूप का' का अंतिम भाग


कहानी 'एक टुकड़ा धूप का' का अंतिम भाग

'एक टुकड़ा धूप का' - प्रकाशित कहानी


मेरी यह कहानी 'एक टुकड़ा धूप का' इसी ब्‍लॉग पर टेक्‍स्‍ट के रूप में प्रकाशित है लेकिन यह एक समाचार पत्र में प्रकाशित हुई थी। मैं प्रकाशित कहानी को पोस्‍ट कर रहा हूं। 

रविवार, दिसंबर 04, 2011

एक टुकड़ा धूप का

दिवाकर पाण्डेय

जाने क्यों, आज बिस्तर से उठने का मन नहीं कर रहा था। लेकिन तभी कहीं से एक गोरैया ने आकर भोर का गीत सुनाना शुरू कर दिया। सामने खिड़की की जाली से एक धूप का टुकड़ा मेरे सिरहाने आकर मुझसे अठखेलियां करने लगा, ऐसा लगा जैसे जिंदगी ने दस्तक दी हो। मैं नहा-धोकर नाश्ता करने की तैयारी में था कि अचानक माधव की घबराई-सी आवाज सुनाई दी। कमल जल्दी चलो, गजब हो गया... उसकी सांसें फूल रही थीं।
-आखिर हुआ क्या है? मैं किसी अनहोनी की आशंका से कांप गया।
-सुनील का एक्सीडेंट हो गया है।
- 'क्या!
मैं चीख पड़ा। चम्मच हाथ से छूट गया था। सुनील मेरे बचपन का दोस्त था। स्कूल की या कस्बे की कोई भी शरारत हम दोनों के बिना पूरी नहीं होती थी। कल शाम दोस्तों के साथ मनाई पार्टी का पूरा दृश्य मेरी आंखों के सामने एक चलचित्र की तरह घूम गया। हंसी-मजाक, मस्ती, एक-दूसरे को छेडऩा और बेपरवाही यही सब हमारी पार्टी का हिस्सा थे। जब रात ज्यादा हो गई, तो सभी दोस्तों ने विदा ली। जाते समय मैंने सुनील को कार धीमे चलाने की हिदायत दी थी। वह कार ऐसे चलाता था, जैसे किसी पैरासोनिक विमान में सवार हो। हवा के झोंके से फूलदान गिरने पर मेरी तंद्रा टूट गई। माधव कह रहा था-
तुम्हारे सलाह देने के बावजूद उसने कार तेज चलाई। सड़क का गड्ढा दिखाई नहीं दिया और कार उछल गई। इससे उसका नियंत्रण कार से हट गया और वह पुलिया से जा टकराई। सुनील को हमने कस्बे के हॉस्पिटल में भर्ती करवा दिया है।
माधव के मुंह से यह सुनते ही मैंने झट कपड़े पहने और उसे साथ लेकर हॉस्पिटल की ओर दौड़ पड़ा। अंकल और आंटी वहीं मौजूद थे। आंटी मुझे देखते ही मुझसे लिपटकर रो पड़ीं। बेटा! यह क्या हो गया? वह ठीक तो हो जाएगा न? 'भगवान पर भरोसा रखिए आंटी। सुनील को कुछ नहीं होगा।' दर्द और तड़प की एक लहर मेरे पूरे बदन में दौड़ गई। मैं आंटी को धीरज बंधाकर डॉक्टर के केबिन की तरफ बढ़ गया।
'आओ कमल, तुम्हारे दोस्त की हालत बहुत नाजुक है। सिर में चोट आने से खून ज्यादा बह गया है। उसे जल्द से जल्द खून न दिया गया तो हम कुछ नहीं कर पाएंगे। दुर्भाग्य से उसके ग्रुप का खून इस वक्त हमारे ब्लड-बैंक में भी नहीं है।'
खून दिए जाने की बात जानकर सुनील के सभी रिश्तेदारों का चेहरा लटक गया। आंटी की आंखों से आंसुओं का सैलाब बह निकला। दोस्ती का फर्ज मुझे झकझोरने लगा और मैंने अपना खून देने का निर्णय कर लिया। मैंने अपना खून, ग्रुप टेस्ट के लिए लैब में दे दिया।
कुछ देर बाद डॉक्टर ने आकर बताया- कमल तुम्हारा ग्रुप सुनील के ग्रुप से मैच तो कर गया है लेकिन अफसोस हम तुम्हारा खून उसे दे नहीं सकते।
मगर क्यों? मैंने प्रश्नसूचक निगाहों से डॉक्टर को देखा।
...क्योंकि तुम्हें एड्स है। सभी की नजरें मेरी तरफ उठ गईं। उनमें तीर से चुभने वाले सवाल तैर रहे थे। मेरे पैरों तले तो जमीन ही खिसक गई। लगा जैसे आइने के पाक चेहरे पर किसी ने पत्थर मार दिया हो।
यह नहीं हो सकता डॉक्टर साहब, आप यह टेस्ट दोबारा कराइए।
हमने टेस्ट में कोई गलती नहीं की। उसका नतीजा बिलकुल सही है।
यह कहकर डॉक्टर चला गया। एक-एक कर सब लोग चले गए। केवल रमा खड़ी रही, उसे तो जैसे सांप हीं सूंघ गया था। रमा मेरे ही मोहल्ले में मोड़ वाली गली में रहती थी। हम दोनों साथ-साथ पढ़ते थे। क्लास में मैं हमेशा अव्वल आता था। कस्बे में होने वाली कई गायन प्रतियोगिताओं का भी विजेता रहा था मैं। रमा वालीबॉल की अच्छी खिलाड़ी थी, पेंटिंग और नृत्य में तो उसका कोई सानी ही नहीं था। रमा की स्वच्छंद हंसी, चुलबुलापन और सादगी हमेशा मेरे मन को फूल की खुशबू की तरह महकाती रहती थी। हम दोनों एक-दूसरे को दिल ही दिल में चाहने लगे थे। होली की एक सुबह जब रंग और गुलाल फिजाओं को रंगीन बना रहे थे तब गुलमोहर के तले हमने
अपनी भावनाओं का इजहार एक-दूसरे से कर दिया। धीरे-धीरे चंद्रमा की कलाओं की तरह हमारा प्यार परवान चढऩे लगा। हमने साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खाई थीं। लेकिन आज ये एड्स का तूफान हमारे प्यार कि कश्ती को लीलने के लिए न जाने कहां से हमारी जिंदगी में चला आया था।
मेरी स्मृति में दो साल पहले की घटना बिजली की तरह कौंध गई। एक गायन प्रतियोगिता में हिस्सा लेने मैं शिमला गया था। प्रतियोगिता विजेता को अखिल भारतीय स्तर पर भेजा जाना था इसलिए सभी को अच्छी तरह से प्रशिक्षित किये जाने के उद्देश्य से लगभग एक महीने पहले ही बुला लिया गया था। हम सब लड़के-लड़कियां एक ही बिल्डिंग में ठहरे हुए थे। सुबह होते ही सब अपने-अपने रियाज पर जुट जाते और यह सिलसिला देर शाम तक चलता रहता। मैं अपने रियाज में इतना डूबा हुआ था कि जान ही नहीं पाया कि एक जोड़ी आंखें मेरा पीछा करती रही हैं। एक शाम जब मैं अभ्यास में मशगूल था तभी एक मधुर आवाज सुनाई दी- बहुत मेहनत कर रहे हैं आप। लगा जैसे किसी ने क्षितिज से पुकारा हो। पीछे मुड़ा तो देखा एक फूलों की डाली मानवीय वेश में खड़ी मुस्कुरा रही थी। इतनी मेहनत किसलिए जनाब? मैं खामोश उसे देखता रहा। लगता है आप इस प्रतियोगिता को जीतकर ही दम लेंगे।
हां, मेरे मुंह से बरबस ही निकल गया।
क्या नाम है आपका?... कमल। और मेरा कोमल (मेरे बिना पूछे ही उसने अपना नाम बता दिया)।
कमल और कोमल दोनों ही 'क' से बने हैं, है न। एक मीठी मुस्कान बिखेरकर वह चली गई। पहली मुलाकात और इतना बेतकल्लुफ अंदाज। खुद को ठगा महसूस कर रहा था मैं। इस परिचय के बाद हल्की नोंक·-झोंक के साथ अक्सर हमारी मुलाकात होने लगी और ये धीरे-धीरे दोस्ती में बदल गई। कोमल की शोखी माहौल को हमेशा खुशनुमा बनाए रखती। शिमला की वादियां उसकी आंखों के इशारों की गुलाम थीं। हवाएं उसके बदन की खुशबू से महकती रहती थीं और घटाएं उसकी जुल्फों से रंग चुराकर झूमती थीं। एक बार जब हम एकसाथ टहल रहे थे तो उसने धीरे से गंभीर स्वर में कहा- कमल, कितना अच्छा हो कि हमारा यह सफर कभी खत्म न हो। मैंने उसे सवाल भरी नजरों से देखा और फिर नजरें हटा दीं। वहां की बर्फ मोतियों से ढक गई थी। कोमल मुझे एक अनबूझ पहेली सी लगती थी। न जानें क्यों मुझे उसकी आंखों में दर्द का एक पहाड़ दिखाई दिया था जो पिघलना चाह रहा हो। आज सब अभ्यास करने में तल्लीन थे। कोमल भी जी-जान से जुटी थी। अचानक वह घुटनों के बल बैठ गई और हांफने लगी। सब उसकी तरफ दौड़ पड़े। जल्दी से उसे अस्पताल में भरती कराया गया। शाम को जब मैं नदी किनारे बैठा कोमल के बारे में सोच रहा था तभी किसी सर्द स्पर्श ने मेरे हाथों को छुआ। देखा तो सामने एक भावविहीन चेहरे के साथ कोमल खड़ी थी। उसने मेरे हाथों को अपने नाजुक हाथों में थाम लिया और चेहरा मेरे कंधे पर टिका दिया। ओठों की पंखुडिय़ों में हल्की-सी जुम्बिस हुई, कमल मैं तुमसे प्यार करती हूं और तुमसे शादी करना चाहती हूं। जानते हो, मुझे ब्लड कैंसर है। मैं अब चंद दिनों की मेहमान हूं। इससे पहले कि सांसे मुझे अलविदा कहें मैं बाकी नई जिंदगी को तुम्हारी बांहों में खुशी के साथ गुजारना चाहती हूं। क्या तुम मरने वाले की यह आखिरी ख्वाहिश पूरी
नहीं करोगे? कहते-कहते उसकी पलकों की कतारों से आंसुओं की कुछ गर्म बूंदें ढलकर मेरी कमीज को भिगोने लगीं और उसी के साथ भीगने लगा था मेरा अपना वजूद। मैं शिमला की सर्दी में भी पसीना-पसीना हो गया था।
मैं अब अपने कमरे में आ गया था लेकिन कोमल की आंखों के आंसू मेरा पीछ छोड़ नहीं रहे थे एक तरफ रमा के लिए मेरा सच्चा प्यार था तो दूसरी तरफ मेरे लिए कोमल का सच्चा प्यार। उसकी पवित्र पुकार मुझे बार-बार अपनी तरफ खींच रही थी। इसी उधेड़बुन में न जाने कब नींद आ गई। सुबह जब मैं खुद से कोमल के सवाल का जवाब पूछ रहा था और मेरे अंदर का इंसान सारे जवाब उसी के हक में दे रहा था, तभी कोमल ने एक इठलाती नदी की तरह मेरे कमरे में प्रवेश किया और मेरे हाथ को थाम एक दिशा की तरफ चल दी। मैं एक अदृश्य-बंधन में बंधा सम्मोहित सा उसके साथ चलता जा रहा था। मेरे कदम जैसे उसका प्रतिरोध करना ही न चाह रहे हों। कुछ देर बाद हमलोग एक मंदिर में खड़े थे। वहां हम दोनों ने शादी की। सब कुछ इस तरह से हुआ कि मैं कुछ समझ ही नहीं सका। मेरा सम्मोहन तब टूटा जब कोमल मुझसे लिपटकर रो पड़ी और कहने लगी, कमल ये वक्त ठहर क्यों नहीं जाता? मैं जीना चाहती हूँ। जीना चाहती हूं मैं।
अब मुझे अहसास हुआ कि भगवान ने एक इंसान को खुश करने की कठिन जिम्मेदारी निभाने के लिए मुझे चुना है। पहली बार कोमल को मैंने अपने आगोश में लिया था, मैं उसे मौत की काली छाया और गमों के सायों से बचाना चाहता था। वह रात बहुत तूफानी थी। मैंने निश्चय कर लिया था कि कोमल अब जितने दिन भी जिएगी, मैं उसे गम का अहसास नहीं होने दूंगा। उसका दामन खुशियों से भर दूंगा। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई, देखा तो सामने थर-थर कांपती कोमल खड़ी थी। वह मुझसे लिपटकर सुबक पड़ी। बाहर जैसे-जैसे तूफान तेज होता गया हमारी सांसें और धड़कनें एक होती चली गई।
प्रतियोगिता में मात्र पांच दिन शेष थे कि अचानक कोमल की तबियत बिगड़ गई। डॉक्टरों ने भी उसके लिए आशा करना छोड़ दिया था। उसने मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, कमल तुमने मुझे अपना लिया, इसके बाद मेरी कोई ख्वाहिश नहीं रही। दु:ख है तो केवल इस बात का कि मैं तुम्हारे साथ बस कुछ ही कदम साथ चल सकी। कमल! अब मैं नहीं बचूंगी, वादा करो कि तुम यह प्रतियोगिता जरूर जीतोगे। मैंने हां में गर्दन हिला दी। उसकी आंखें डबडबा आईं और फिर धीरे-धीरे हमेशा के लिए बंद हो गई। आंसुओं से शुरू हुई कहानी आंसुओं के साथ खत्म हो गई थी। आज महसूस हो रहा था कि कितना असहाय है इंसान और कितना निष्ठुर है विधाता। कोमल से किया वादा मैंने निभाया और प्रतियोगिता जीतकर वापस आ गया। यहां आने के बाद मैं उदास रहने लगा।
कमल! रमा की कठोर आवाज ने जैसे मुझे ख्वाब से जगा दिया हो। रमा की क्रोध से लाल आंखें मुझे प्रश्नसूचक निगाहों से देख रही थीं।
रमा मेरा विश्वास करो डॉक्टर से जरूर कोई गलती हुई है।
चले जाओ कमल! यहां से चले जाओ। गलती तो मैंने की है। तुमने कमल की खुशबू को मैला कर दिया है।
रमा मैं सच कह रहा हूं, मुझे एड्स नहीं है।
कमल मुझे अकेला छोड़ दो। मैं रोना चाहती हूं, उस गलती पर जो मैंने तुमसे प्यार करके की है।
रमा एकपक्षीय निर्णय लेकर तुम मेरे साथ ज्यादती कर रही हो। तुम्ही सोचो क्या चांद की चांदनी भी मैली हो सकती है?
चांद में तो दाग होता है कमल।
मैं वो चांद नहीं हूँ रमा। मैं शिमला जाकर फिर से टेस्ट कराऊंगा। मुझे विश्वास है कि मुझे एड्स नहीं है। वादा करो मुझसे तुम तब तक मेरा इंतजार करोगी। रमा खामोश निगाहों से मेरी तरफ देखकर वहां से चली गई। मुझे अपनी
जिंदगी, राह के पत्थर की तरह लगने लगी थी। आज एक महीना हो गया था कस्बे से शिमला आए। मैं बहुत खुश था क्योंकि मेरी रिपोर्ट निगेटिव थी। मुझे एड्स नहीं था। लग रहा था जैसे आसमान मेरी मुट्ठी में समाने वाला हो। अपने अरमान और रिपोर्ट के सारे कागजात समेटकर मैंने कस्बे जाने वाली बस पकड़ ली। मैं जल्द से जल्द रमा तकपहुंचना चाहता था। बस में लगे साउंड से एक गीत धीरे-धीरे मेरे कानों तक पहुंच रहा था...
'लिए सपनों निगाहों में, चला हूं तेरी राहों में जिंदगी आ रहा हूं मैं...
सबसे पहले मैं घर पहुंच·र तरोताजा हुआ और सज-धजकर पूरे जोश के साथ रमा से मिलने के लिए सीढिय़ां उतरकर दरवाजे की तरफ बढ़ा। तभी कालबेल बज उठी, मैंने लपककर दरवाजा खोला। सामने रमा का नौकर खड़ा था। मैं खुशी से पागल हो गया।
करवाय आए बाबू एड्स का ईलाज। मैं फटी निगाहों से उसे देखता रहा।
मैंने पूछा क्या मतलब?
यहां सब लोग कहै रहे कि आप शहर मा एड्स का ईलाज करवाय गए हौ।
मेरा मन आशंकित हो उठा उसने मुझे एक लिफाफा थमाया और कहा 'अइयो जरूर'...
फिर हौले से मुस्कुरा कर चला गया। मैंने जल्दी से लिफाफा खोलकर कार्ड निकाला। यह क्या...मुझे धरती घूमती हुई नजर आने लगी। लगा जैसे किसी ने मुझे स्वर्ग की ऊंचाइयों से गिरा दिया हो। बेहोश होते-होते बचा था मैं।
कार्ड रमा की शादी का था जो कल होने वाली थी। मैंने जैसे-तैसे खुद को संभाला और उसी गुलमोहर के नीचे पड़ी लोहे की ठंडी बेंच पर जाकर बैठ गया।
हवाओं की चंचलता, मौसम की खुमारी, पक्षियों की चहचहाहट, बादलों का संगीत, फिजाओं का गुलाबीपन, पत्तों की सरसराहट, सावन का एहसास दिलाती पानी की बूंदों की अंगड़ाइयां, सब कुछ हां, सब कुछ अपने शबाब पर था, पर न जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा था, कि कोई बेशकीमती हीरा मेरे हाथ में आकर मुठ्ठी में समाने से पहले ही छिटककर दूर चला गया हो। मेरा दोस्त और मेरा प्यार दोनों मुझसे बहुत दूर जा चुके थे। लगा जैसे धूप का वह टुकड़ा मुझसे वाकई में केवल अठखेलियां करने के लिए ही आया था।

शुक्रवार, अगस्त 19, 2011

समय के प्रवाह में मंचीय अलाप


हरिशंकर परिसाई ने जब साहित्य में निंदा रस की परिभाषा कुछ जुदा तरीके से गढ़ी तो उनके इस आविष्कार पर हर कोई मुदित हुआ। निंदा करने वाला भी और सुनने वाला भी। श्रीलाल शुक्ल ने एक और राग का आविष्कार किया- राग दरबारी। मैं कोई आविष्कार तो नहीं कर रहा हूं (औकात ही नहीं) लेकिन एक आधुनिक क्षेत्र की जानकारी जरूर दे रहा हूं। ये राग और रस से एकदम जुदा है, नाम है ‘मंचीय अलाप’। आप इसे विलंबित में लें या द्रुत में, दोनों प्रभावशाली होते हैं। इसका रियाज करने की बजाए किसी आयोजन में श्रोता/दर्शक बनना बेहतर है। मंच पर अगर शिक्षित सफेदपोशों की उपस्थिति है तब आप खुद को भाग्यशाली समझिए। उनके मुखारबिंद से मंचीय अलाप में प्रशंसा का सोहर ऐसे झरता है जैसे जाड़े की सुबह हरसिंगार के फूल। माना कार्यक्रम तय समय से घंटों देर से शुरू होता है लेकिन मुफ्त में ज्ञान हासिल करने की कीमम समय से चुकानी पड़े तो क्या बुरा है। आप एक बानगी देखिए। यहां देशप्रेम पर आधारित एक नाटक का मंचन होना है। मुख्य अतिथि को आना है और कुछ लोगों ने माइक संभाल रखा है: आदरणीय, माननीय, सम्मानीय, प्रात:स्मरणीय सांध्य-पूजनीय श्री दुबेजी हमारे बीच मौजूद हैं। इनसे मेरे वर्षों पुराने संबंध हैं। मैं यह नहीं जानता कि इनकी तारीफ कैसे करूं, लेकिन करूंगा। सच मानिए मेरे पास शब्द नहीं हैं इनकी प्रशंसा में कहने के लिए। मैं बस यही कहूंगा कि ये स्वनामधन्य महापुरुष हैं। चूंकि मुझे दो शब्द बोलने के लिए कहा गया है इसलिए मैं ज्यादा समय न लेते हुए (ये जनाब भाषाशास्त्र के विशेषज्ञ हैं) बस यही कहूंगा कि दुबेजी जैसे धनी व्यक्तित्व अब दुर्लभ हो गए हैं। इस आयोजन में भी दुबेजी का बहुत योगदान है। मैं जानता हूं कि आप लोग नाटक देखने के लिए अधीर हो रहे हैं। लेकिन उसके पहले मैं दुबेजी से आग्रह करूंगा कि वो भी दो शब्द कहकर हमें कृतार्थ करें। दुबेजी: परम आदरणीय पुरुष श्रेष्ठ, जीवंतता और आत्मीयता की प्रतिमूर्ति श्रीवास्तव साहब मेरे छोटे भाई हैं। उन्होंने अपने संक्षिप्त किंतु सारगर्भित भाषण में हमारे सामान्य ज्ञान में जो वृद्धि की है उसके लिए हम इनके आभारी हैं। उनके भाषण में बहुत ओज है। वे हमेशा सच बोलते हैं। उन्होंने इस मौके पर पधारने का जो कष्ट उठाया है उससे पता चलता है कि वे देशप्रेम में आकंठ डूबे हैं। अभी देशप्रेम पर आधारित जो नाटक आप देखेंगे उसमें उनके जीवन का भी समावेश किया गया है। मैं जानता हूं कि आप लोगों का सब्र परवान चढ़ रहा है पर मुख्य अतिथि के आने में थोड़ा विलंब है। उनके आते ही नाटक शुरू हो जाएग। हम आपको बता दें कि ये वही मंच है जहां से हमारे मुख्य अतिथि ने कई जनकल्याणकारी घोषणाएं की हैं। आप जहां बैठे हैं वो वही जगह है जहां से आपने हौसलाअफजाई करते हुए गगनभेदी तालियां बजाई हैं। ऐसे चतुर्दिक यशप्राप्त मुख्य अतिथि साहब हमारे बीच पधारने ही वाले हैं। वो इतने जनप्रिय हैं कि हर आयोजन में पहुंचने में उन्हें अन्य लोगों की तुलना में ज्यादा समय लगता है। लीजिए वो हमारे बीच आ चुके हैं। हम उनके सम्मान में एक छोटी सी स्तुति करेंगे और उनसे आग्रह करेंगे कि स्तुति के बाद वे दो शब्द कहकर हमें अपने आशीर्वाद से सिंचित करें। उसके बाद कार्र्यक्रम की अविलंब शुरुआत कर दी जाएगी। बस आप अधीर न होइए, हम जानते हैं कि आपका समय कीमती है!

इसे भी देंखें- http://www.bhaskar.com/article/SPLDB-cityblog-passion-and-stage-separated-from-the-ju-2006273.html